अंबेडकर नगर,12 दिसम्बर। किसी भी लोक कल्याणकारी राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों द्वारा जहाँ राजनैतिक दलों को सत्तासुख का जनादेश प्राप्त होता है वहीं आमजनता को भी अपनी समस्याओं के समाधान का अवसर मिलता है।किंतु जनमानस को सुविधा प्रदान करने के नामपर लाभ कमाने वाली निर्माण,संचार,परिवहन,चिकित्सा और वाणिज्य तथा सरकारी तेल रिफायनरी इकाइयों तथा कम्पनियों को शनै:शनै: निजी औद्योगिक घरानों के हाथों बेचने के कुचक्र औरकि साजिश के चलते देश के आममतदाताओं सहित सभी नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा औरकि इसीतर्ज पर पुरानी पेंशन को शिक्षकों, कर्मचारियों और अर्ध सैनिक बलों सहित अन्यान्य सरकारी विभागों में पुनः लागू न करना दिनोंदिन कमतर और कमजोर होती जा रही सोशल जस्टिस के विरुद्ध  विचारणीय यक्ष प्रश्न है।

वस्तुतः उदारीकरण की छत्रछाया में फलने फूलने वाले निजीकरण की संकल्पना न तो किसी चुनावों के घोषणापत्र का अंग होती है और न ही किसी भी दल के चुनावी वायदे की।अपितु यह चुनावों के दरम्यान निजी औद्यागिक घरानों से पार्टियों को प्राप्त होने वाले चंदे के बदले सरकारों द्वारा उनको दिया जाने वाला उपहार स्वरूप नजराना है।जिसके मार्फ़त औद्योगिक घरानों की शह पर लाभ कमाने वाले संयंत्रों,कारखानों और इकाइयों  को सरकारें पहले स्वयम तबाह करती हुई उनके घाटे में जाने का होहल्ला मचाती हैं,ताकि आमजनता की नजर में ऐसे संस्थान फालतू और बेमतलब दिखाई दें।इसके लिए सरकारें कर्मचारियों की भर्तियां रोक देती हैं,उनके हक हुक़ूक़ और अधिकारों को लेकर व्यर्थ में प्रोपेगेंडा चलाती हैं।कदाचित निजीकरण नेताओं के लिए निजी स्वार्थ और जनता के लिए किसी विध्वंस से कम नहीं कहा जा सकता।

    सामाजिक सुरक्षा का सीधा सीधा तातपर्य श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं को पहुंचने वाले विभिन्न प्रकार के लाभों से है।कार्मिकों को संस्थानों के राष्ट्रीयकरण से जहाँ वेतन,भविष्यनिधि,मृतकआश्रित तथा पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा के उपायों से आच्छादन मिलता है वहीं आम उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण और सस्ते सामान मिलते हैं।जिससे कमजोर तबके के लोग भी राष्ट्रीयकृत इकाइयों में बने सामानों का सहज उपभोग करते हुए अपने जीवनस्तर को सुधारते रहते हैं।किंतु जब उपभोक्ताओं को निजीकरण के नामपर उदारीकरण के लॉलीपॉप थमाया जाता है तो पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों का मूल्य सरकारी कम्पनियों की तुलना में बहुत कम रखती हुई ग्राहक बनाती हैं।एक समय ऐसा आता है कि सरकारी सामानों को उपभोक्ता गुणवत्ताहीन तथा फालतू मानने लगता है।ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय इकाइयां जनमानस की नजर में अनुपयोगी दिखने लगती हैं।जिससे सरकारों को अपनी चाल सफल होते देख इन्हें औने पौने दाम निजी औद्योगिक घरानों को बेचने का मौका हाथ लग जाता है औरकि कालांतर में जबतक जनता को समझ आती है तबतक सरकारी इकाइयों का नामोनिशान मिट चुका होता है और इसी के साथ जनता का सामाजिक सुरक्षा का कवच भी सुपर्दे खाक हो जाता है।

    निजीकरण से सामाजिक सुरक्षा को खतरे को संचार क्षेत्र से ही उदाहरणार्थ समझा जा सकता है।कभी मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध कराने में देश की सरकारी कम्पनी भारत संचार निगम लिमिटेड की बी एस एन एल सेवा का कोई जोड़ नहीं था।किंतु इसके चलते जिओ,वोडाफोन,आइडिया,एयरटेल,रिलायंस आदि निजी कंपनियों के न तो सिम बिक रहे थे और न मोबाइल नेटवर्क ही जनता प्रयोग कर रही थी।लिहाजा इन निजी घरानों ने केंद्र सरकार पर अपनी नजर गड़ाते हुए गलबहियां की।नजीतन सरकारों ने भारत संचार निगम लिमिटेड की सेवाओं को ही लथर पथर कर दिया।उवभोक्ता भी शुरू शुरू में मुफ्तखोरी के चक्कर में अपनी राष्ट्रीय कम्पनी से नाता तोड़कर निजी कंपनियों के सिम महंगे दामों पर खरीदना अपना स्टैटश समझने लगे।हालात यहां तक आ गए कि आज पूरा देश इन निजी संचार कम्पनियों के गुलाम सा बनकर रह गया है।देहात की लगभग 30 प्रतिशत महिलाओं और पुरुषों द्वारा केवल बातचीत हेतु मोबाइल नेटवर्क प्रयोग किया जाता है।ऐसे लोग कभी भी इंटरनेट का प्रयोग नहीं करते जबकि निजी कंपनियां इनसे जबरदस्ती इन्टरनेट का भी पैसा वसूल कर रही हैं।ये है सामाजिक सुरक्षा का हनन और निजीकरण का सबसे बड़ा नुकसान।गौरतलब है कि बी एस एन एल आज भी 35 रुपये में एकमहीने कालिंग नेटवर्क उपलब्ध करा रहा है।जिसका अन्य निजी कंपनियां बलात 299 रुपये वसूल रहीं हैं।

   शुक्र मनाइए किसान आंदोलन का,जोकि रेलवे व बैंकों के किये वरदान साबित हुआ अन्यथा अबतक भारत मे सभी रेलवे स्टेशन से लेकर हरेक बैंक भी किसी न किसी औद्योगिक घराने को बेंच दिए गए होते।जिनमें सुविधाओं  के नामपर उपभोक्ताओं से बलात ज्यादा धन वसूले जाते तथा सामाजिक सुरक्षा के नामपर इतिश्री होती।कमोवेश आनेवाले दिनों में बैंकों की स्थिति चिटफंड कंपनियों जैसी न हो जाये,इस बात का भी अंदेशा अधिक है।

   वस्तुतः कल-कारखानों व उपक्रमों का निजीकरण न तो सरकारों के किये घाटे का सौदा है और न ही निजी घरानों के लिए।सरकारें सरकारी उपक्रम बेंचकर जनसामान्य को सस्ती और बेहतर सुविधा उपलब्ध कराने औरकि सब्सिडी से बच जाती हैं तथा नौकरी की कतार में खड़ा प्रतियोगी छात्र टुकड़ों पर जीने के लिए विवश हो जाता है।इसप्रकार निजीकरण आमजनता की जेबों पर जबरदस्ती पड़ने वाला डाका ही है।जिससे सरकारी उपक्रम बदनामियाँ की आड़ में दुर्दशा के शिकार हो बिकते जा रहे हैं तथा महंगी प्राइवेट शिक्षा, यात्रा भाड़ा,बिजली,मोबाइल नेटवर्क इत्यादि के बीच आमजनमानस पिसता जा रहा है।